भगवान शिव का सही स्वरूप क्या है।

 भगवान शिव का सही स्वरूप क्या है।



भगवान शिव कौन है इस विषय पर बहुत लोग भ्रमित है परंतु अगर हम ध्यान से वैदिक परंपरा के अनुसार विचार करें तो चीजें बहुत आसान हो जाती हैं। आज हिंदू समाज में फैल रहा भयंकर पाखंड जो उसे एक दिन मृत्यु की कगार पर ले जाएगा इसका एक कारण है अपने पूज्य महान आत्माओं की विचारधारा को नहीं समझ पाना जिसमें से एक सबसे महत्वपूर्ण है जिनका नाम है भगवान शिव या हम उन्हें भोलेनाथ के नाम से भी जानते हैं।

कैलाशपति शिव के यथार्थ दर्शन।

श्रावण अर्थात सावन के माह में कावड़ लाने वाले युवक आपको प्राय: शिव भक्ति के नाम पर भांग-गांजा आदि ग्रहण करते मिलेंगे। यह धर्म नहीं अपितु अन्धविश्वास है।  वेदों में शिव कल्याणकारी ईश्वर का एक नाम है जिन्हें रूद्र आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है। भगवान् महादेव शिव एक ऐतिहासिक महापुरुष थे, जो देव वर्ग में उत्पन्न हुए थे। कैलाश क्षेत्र इनकी राजधानी थी। उनका नशा करते हुए चित्रण करना उनके पवित्र आचरण पर कलंक लगाने के समान हैं। भगवान् शिव के विषय में प्रायः शिव पुराण की कथा का वाचन होता है, जबकि महर्षि वेद व्यास जी कृत महाभारत में शिव के यथार्थ चरित्र के दर्शन होते हैं। 

अब हम महादेव भगवान् शिव की चर्चा करते हैं-

महर्षि दयानन्द जी ने अपने पूना प्रवचन में महादेव जी को अग्निष्वात का पुत्र कहा है। अग्निष्वात किसके पुत्र थे, यह बहुत स्पष्ट नहीं है परन्तु वे ब्रह्माजी के वंशज अवश्य हैं। इधर महाभारत में महर्षि वैशम्पायन ने कहा है-


उमापतिर्भूतपतिः श्री कण्ठो ब्रह्मणः सुतः।।

उक्तवानिदमव्यग्रो ज्ञानं पाशुपतं शिवः।।

                         शान्तिपर्व। मोक्षधर्मपर्व। अ. 349। श्लोक 67 (गीतप्रैस)


यहाँ भगवती उमा जी के पति भूतपति, जो महादेव भगवान् शिव का ही नाम है, को महर्षि ब्रह्मा जी का पुत्र कहा है। इनका पाशुपत अस्त्र विश्व प्रसिद्ध था। इस अस्त्र को नष्ट वाला कोई अस्त्र भूमण्डल पर नहीं था। महाभारत के अनुशीलन से भगवान् शिव अत्यन्त विरक्त पुरुष, सदैव योगसाधना में लीन, विवाहित होकर भी पूर्ण जितेन्द्रिय, आकाशगमन आदि अनेकों महत्वपूर्ण सिद्धियों से सम्पन्न, वेद-वेदांगों के महान् वैज्ञानिक, सुगठित तेजस्वी व अत्यन्त बलिष्ठ शरीर व वीरता के अप्रतिम धनी दिव्य पुरुष थे। वे जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त महाविभूति थे। उनके इतिहास का वर्णन तो अधिक नहीं मिलता परन्तु उनके उपदेशों को हम महाभारत में पढ़ सकते हैं। इस कारण हम इस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे।

धर्म का गृहस्थ स्वरूप।

श्रीमहेश्वर उवाच-

अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्।

शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः।। 25।।

श्रीमहेश्वरने कहा- देवी! किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इन्द्रियों पर काबू रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना गृहस्थ-आश्रम का उत्तम धर्म है।। 25।।

परदारेष्वसंसर्गो न्यासस्त्रीपरिरक्षणम्।

अदत्तादानविरमो मधुमांसस्य वर्जनम्।। 26।।

एष प४चविधो धर्मो बहुशाखः सुखोदयः।

देहिभिर्धर्मपरमैश्चर्तव्यो धर्मसम्भवः।। 27।। 

(महाभारत अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व, अध्याय 141)

परायी स्त्री के संसर्ग से दूर रहना, धरोहर और स्त्री की रक्षा करना, बिना दिये किसी की वस्तु न लेना तथा मांस और मदिरा को त्याग देना, ये धर्म के पाँच भेद हैं, जो सुख की प्राप्ति कराने वाले हैं। इनमें से एक-एक धर्म की अनेक शाखाएँ हैं। धर्म को श्रेष्ठ मानने वाले मनुष्यों को चाहिये कि वे पुण्यप्रद धर्म का पालन अवश्य करें।। 26-27।।

भगवान् शिव के इन वचनों पर सभी गृहस्थ शिवभक्त कहाने वाले गम्भीरता से विचारें कि क्या आप सभी जीवों के प्रति दया व प्रेम करते हैं। क्या शिवमंदिरों में अपने ही कथित दलित भाईयों के प्रति आत्मिक प्रेम व समानता का भाव रखते हैं? क्या आप जीवन भर मांस, मछली, अण्डा व सभी प्रकार के नशीले पदार्थों के परित्याग की प्रतिज्ञा करेंगे? क्या आप अश्लील कथाओं, मोबाइल, इण्टरनेट व पत्र-पत्रिकाओं की अश्लीलता से बचने का व्रत लेंगे? क्या आप सभी परायी स्त्रियों के प्रति कुदृष्टिपात से बच पायेंगे? क्या आप सत्य ही बोलते व उस पर आचरण करते हैं? क्या चोरी, तस्करी, रिश्वत, वस्तुओं में मिलावट तथा किसी के अधिकार छीनने की प्रवृत्ति का त्याग करेंगे? तथा अपने जीवन में श्रेष्ठ वेदानुकूल कार्यों में दान व त्याग की भावना जगायेंगे? यदि नहीं तो आपकी शिवभक्ति सर्वथा निरर्थक है, अज्ञानतापूर्ण है।

ब्राह्मणों का धर्म।

स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः।

कर्माण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः।।

सत्यं शान्तिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः।

वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ और दान ब्राह्मण का धर्म है, यह शास्त्र का निर्णय है। वेदों का पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना, ये सभी ब्राह्मण के कर्म हैं। सत्य, मनोनिग्रह, तप, और बाहरी व आन्तरिक पवित्रता, यह उसका सनातन धर्म है।

विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः।।

 अर्थात् रस और धान्य(अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मण के लिये निन्दित है।

(अनुशासन पर्व, दानधर्म पर्व, अध्याय 141,गीताप्रेस)   

पाठक यहाँ भगवान् शिव के वचनों पर विचारें तो स्पष्ट है कि ब्राह्मणादि वर्ण जन्म से नहीं, बल्कि कर्म व योग्यता से होते हैं। इसका स्पष्टीकरण आगे करेंगे। यहाँ यह चिन्तनीय है कि क्या शिवभक्त कहाने वाला ब्राह्मण आज वेदादि शास्त्रों के महान् ज्ञान विज्ञान को समझता है अथवा भांग पीने में मस्त है? क्या वह दान देना भी जानता है अथवा लेना ही जानता है? क्या वह मनसा वाचा कर्मणा सत्य का पालन व अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला है? क्या वह धर्म के मार्ग में सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्दों को सहन करने रूपी तप को करता है? क्या वह मन-वचन-कर्म से पवित्र आचरण करता है? क्या कोई स्वयं को ब्राह्मण अथवा साधु, संन्यासी कहाने वाला व्यापार व उद्योग आदि वैश्य-कर्मों से दूर है? यदि उसमें ये गुण नहीं है, तो वह भगवान् शिव की दृष्टि में ब्राह्मण नहीं हो सकता।  

आइये, कथित ब्राह्मण बन्धुओ! सच्चे ब्राह्मण बनने का प्रयास करने का व्रत लें। सच्चे शिव के शिष्य बनेगे।

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